प्रतिदिन विद्यालय अपनी साइकिल पर जाते थे।
और दस किलोमीटर प्रति दिन जाना और आना यही उनका नित्य नियम था।
भरी गर्मी में भी खेतों खलिहानों में गांव की कच्ची पगडंडियों पर अपनी लाडली साइकिल पर आते जाते। ग्रामीण नागरिकों का अभिवादन लेते देते काफी लोकप्रिय हो चुके थे।
एक शिक्षक की सादगी, मधुर व्यवहार और सामान्य जीवन । यही उनकी जमा पूंजी थी। ना धन का लोभ मोह और ना ही ऊंचे महलों में रहने की चाहत फिर भी एक ऐसा आदर सम्मान जो लाखों करोड़ों की संपत्ति के मालिक को भी नहीं नसीब हो सकती।
उन्हीं को मामुली सा शारीरिक बुखार भी हो जाता था तो सारे गांव में लोग उनकी तबीयत पूछने तिमारदारी करने इकठ्ठा हो जाते थे ।
मास्टर साहब की ज़िंदगी में अचानक भूचाल आ गया ।
तबीयत बिगड़ी और अस्पताल में इलाज के लिए ग्रामीण नागरिकों ने भर्ती कराया जहां जांच के दौरान उनके शरीर में कैंसर होना बताया गया।
इलाज के लिए जगह जगह ले जाए गए मगर स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। कैंसर अस्पताल के वरिष्ठतम चिकित्सक ने बताया कि अधिक से अधिक छ: महीने शेष हैं।
अब क्या था सभी मायूस हो गये।
लेकिन मास्टर साहब के स्वभाव में अचानक परिवर्तन आ गया और उन्होंने ने स्वयं को मुंबई के कैंसर अस्पताल से डिस्चार्ज ले लिया।
अपने गांव आ गए ।
ग्रामीण नागरिकों को उनके प्रति सहानुभूति थी। मगर सबका आभार व्यक्त किया और स्वयं एकांत में रहना शुरू कर दिया ।
गांव के बाहर नदी किनारे एक रम्य स्थान को स्वयं सेवक के रूप में उद्यान रूपी स्थान बनाया और अपने बच्चे हुए दिनों में वही उनकी सेवा करने लगे ।
संयोग से उसी काल खंड में जैन मुनियों का समूह उस उद्यान में आए और मास्टर साहब से अनुमति मांगी कि ।
मास्टर साहब ने न केवल उनके रहने की उचित व्यवस्था की बल्कि तहे दिल से उनकी सेवा सुश्रुषा भी करने लगे।
इससे मुनियों को अपार प्रसन्नता हुई और उनमें से एक मुनि ने उनको प्राकृतिक चिकित्सा की जड़ी बूटियों की पहचान करवाई और उन्हीं दवाओं से उनके कैंसर को ठीक किया बल्कि अनेकों असाध्य रोगियों को ठीक किया जा सके ऐसी दवाओं से परिचित कराया।
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