हम जिस जिस जगह पर भी रहे हमारे परिवार आपस मे एक दूसरे के रीति-रिवाज का सम्मान करते थे।
हम उनके ईद मुबारक करते थे तो वो भी हमें हमारे होली दीवाली दशहरा पर्व पर मिठाई और बधाई दिया करते थे।
अनेकों मेरे मित्र गण जब कभी आवश्यकता पड़ती थी तो मददगार साबित होते थे और आज भी ऐसा ही माहौल है।
मैं कई बार अपने दोस्तों के घर रात को सोया उनके घर पर पूरी शुद्ध सात्विक भोजन ठीक मेरे परिवार के नियम के अनुसार ही मुझे खिलाया जाता था।
इसलिए मुझे कभी किसी से कोई दगा फरेब धोखा नहीं दिखाई दिया।
उल्टा मुसीबत के समय पर निःस्वार्थ सहयोग मिला।
लेकिन आज जब हमारे शहरों में आपसी वैमनस्य वातावरण सुनता हूं और टीवी अखबारों में खबरें देखता हूं तो आश्चर्य होता है कि क्या वाकई ऐसा धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले लोग मौजूद हैं।
इंसान इंसान को क्या महज़ इसलिए मार-काट रहा है कि वह उसके मज़हब का नहीं है।
यह तो कोई बात नहीं है। या ऐसा हो कैसे संभव है।
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